नईदिल्ली : संसद की सुरक्षा में चूक मामले पर संसद के दोनों सदनों की शीतकालीन सत्र की कार्यवाही 13 दिसंबर के बाद से बाधित है. सदन को सुचारू रूप से चलाने के लिए और व्यवधान उत्पन्न करने वाले सदस्यों पर कठोर कार्रवाई भी की गई है. संसद के दोनों सदनों से अब तक 141 सदस्यों को निलंबन किया जा चुका है. सदनों से रिकॉर्ड सदस्यों के निलंबन के बाद संसद विपक्ष मुक्त जैसी हो गई है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं है जब इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों को संसद से निलंबित किया गया है. अतीत में भी अलग-अलग तरह के ऐसे मामले सामने आते रहे हैं.
आजादी के बाद के शुरुआती दशकों की बात करें तो इस तरह के व्यवधान दुर्लभ ही होते थे. अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब संसद ने सदस्यों को दंडित करने के लिए अपने अधिकार का इस्तेमाल किया. सदस्यों को कार्यवाही से बाहर कराने के लिए मार्शल का भी दुर्लभ ही प्रयोग होता था, लेकिन कई ऐसी घटनाएं सामने आईं, जब सभापति को मार्शल बुलाने पड़े थे.
राज्यसभा सदस्य गोडे मुराहारी को 1962 में मार्शल ने बाहर निकाला
शुरुआती मामलों में देखा जाए तो राज्यसभा सदस्य गोडे मुराहारी को 3 सितंबर, 1962 को शेष सत्र के लिए निलंबित किया गया था और उनको मार्शल के जरिये सदन से बाहर किया गया था. विडंबना यह है कि उनको भारतीय संसदीय इतिहास में वो एकमात्र सदस्य थे, जो राज्यसभा के उपाध्यक्ष और लोकसभा के उपाध्यक्ष रहे.
मार्शल के जरिए 1966 में कार्यवाही से बाहर कराए थे दो सदस्य
किसी सदस्य के निलंबन की दूसरी घटना में भी मुराहारी शामिल थे. उनको और अन्य सदस्य राज नारायण को 25 जुलाई, 1966 को राज्यसभा के नेता एमसी छागला की ओर से सदन में पेश किए गए दो अलग-अलग प्रस्तावों को स्वीकार करते हुए एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया था. उन्होंने इसका विरोध किया था तो उनको मार्शल बुलाकर बाहर कराया गया, जिस पर सदन काफी अचंभित हुआ. इस घटना को लेकर अगले दिन सभापति ने अपनी व्यथा व्यक्त की और विभिन्न दलों के नेताओं ने घटना पर खेद जताया.
1971 में एक सदस्य पर किया था मार्शल का प्रयोग
12 अगस्त, 1971 को संसदीय कार्य मंत्री ओम मेहता की ओर से भी सदस्य राज नारायण को बाकी राज्यसभा सत्र की कार्यवाही से निलंबित करने का प्रस्ताव पेश किया. उनको भी जबरन मार्शल के जरिये बाहर किया गया था.
1976 में पहली बार एक सदस्य का हुआ 3 बार निष्कासन
संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा का 1976 का अपने आप में एक पहला उदाहरण है जब एक सदस्य को 3 बार निष्कासित किया गया. यह घटना काफी चर्चित रही. 15 नवंबर, 1976 को सुब्रमण्यम स्वामी को राज्यसभा से निष्कासित किया गया था. उनका निष्कासन उनके आचरण और गतिविधियों की जांच के लिए गठित समिति की रिपोर्ट पर आधारित था.
समिति ने उनके आचरण को सदन और उसके सदस्यों की गरिमा के प्रति अपमानजनक और उन मानकों के साथ असंगत पाया जिनकी सदन अपने सदस्यों से अपेक्षा करता है.
इसके अलावा एक मामला 23 दिसंबर, 2005 को डॉ. छत्रपाल सिंह लोढ़ा और 21 मार्च, 2006 को डॉ. स्वामी साक्षी महाराज का भी है जब उनको उनके घोर कदाचार के लिए निष्कासित किया गया था. इस मामले में माना गया कि इससे सदन की गरिमा और आचार संहिता को नुकसान पहुंचा. हालांकि, 1980 के दशक के आखिर में लोकसभा में सदस्यों में बेहद अनियंत्रित व्यवहार ज्यादा देखा गया.
राजीव गांधी सरकार ने किए थे 63 सांसद निलंबित
साल 1989 की बात करें तो उस वक्त राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे. उस समय की एक बहुचर्चित घटना घटी थी. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 15 मार्च, 1984 को हत्या कर दी गई थी. इस हत्या पर ठक्कर आयोग की रिपोर्ट पर सदन में खूब हंगामा हुआ था.
संसद में रिपोर्ट पेश होने से पहले इससे जुड़ा मामला एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हो गया था. इस पर सदन में विपक्ष ने जमकर शोर शराब और हंगामा किया था. इस हंगामे के चलते सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से नहीं चलने देने और व्यवधान उत्पन्न करने की वजह से उनकी बातों को अनसुना करते हुए 63 सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित कर दिया गया था.
इसके अलावा पूर्व की घटना से उल्ट एक और मामला 20 जुलाई, 1989 को लोकसभा में घटित हुआ जब रक्षा सेवाओं पर सीएजी रिपोर्ट की टिप्पणी पर सदन में खूब हंगामा हुआ.
माइक्रोफोन को उखाड़ फेंकने पर नहीं हुई थी सत्यगोपाल मिश्रा पर कार्यवाही
पश्चिम बंगाल से कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सत्यगोपाल मिश्रा ने आसन के सामने रखे माइक्रोफोन को उखाड़कर सदन के गड्ढे में फेंक दिया था. हैरानी की बात यह है कि घोर कदाचार होने के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.
यूपीए-2 के शासनकाल के दौरान संसद के निचले सदन की कार्यवाही के दौरान फरवरी 2014 में भी 18 लोकसभा सदस्यों को निलंबित किया गया था. वहीं, लोकसभा की तत्कालीन अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी जनवरी 2019 में 45 सदस्यों को उनके अनियंत्रित व्यवहार की वजह से निलंबित किया था.
ऐसा नहीं है कि संसद सत्र को नहीं चलने देने या फिर व्यवधान उत्पन्न करने की स्थिति पर अतीत में सदस्यों पर निलंबन जैसी कार्यवाही नहीं की गई. अतीत में ऐसे अनेकों मामले हुए हैं जब सदस्यों ने आचार संहिता का उल्लंघन किया और अध्यक्ष ने उनका निलंबन किया गया.
इस बीच देखा जाए तो वर्तमान में, पूरे सत्र के लिए निलंबन और निष्कासन आम हो गया है. दरअसल, विपक्षी सदस्य केंद्र सरकार से किसी मसले पर आधिकारिक बयान या स्पष्टीकरण देने पर ज्यादा बल देते हैं और बाद में ऐसा करने से इनकार भी कर देते हैं. ज्यादातर समय विपक्ष की नाराजगी इस बात को लेकर होती है कि प्रधानमंत्री सदन में बयान दें लेकिन उनकी मांग को सरकार स्वीकार नहीं करती है.