नईदिल्ली I सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक में हिजाब प्रतिबंध मामले पर सुनवाई चल रही है. हिजाब मामले में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच जब सुनवाई कर रही थी, उस समय वकील देवदत्त कामत ने दलील दी कि वरिष्ठ अधिवक्ता के. परासरन धार्मिक चिन्ह धारण करते हैं, लेकिन क्या यह सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करता है. इस पर जस्टिस धूलिया ने कहा कि आपके अनुसार अनुच्छेद 25 में आवश्यक धार्मिक प्रथा को नहीं देखा जाना चाहिए?
सुनवाई के दौरान कामत ने कहा कि भगवा शॉल पहनना जानबूझकर एक धर्म का प्रदर्शन है इसे आर्टिकल 25 के धार्मिक स्वतंत्रता के तहत नही रखा जा सकता. रुद्राक्ष और नमाम (एक तरह का माथे पर लगाया जाने वाला तिलक) से भगवा शॉल से तुलना नही की जा सकती.
वकीलों की तुलना नहीं कर सकतेः SC
जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि आप अदालत में पेश होने वाले वकीलों की तुलना नहीं कर सकते, क्योंकि यह एक ड्रेस है. पहले डॉक्टर धवन ने पगड़ी का हवाला दिया, लेकिन राजस्थान में लोग पगड़ी को नियमित रूप से पहनते हैं.
कामत ने कहा कि संवैधानिक योजना में क्या हिटलर के वीटो की अनुमति है? ऐसी मिसालें हैं, जो बताती हैं कि ऐसा संभव नहीं है, यह अमेरिका का फैसला है, जिसका 2001 के फैसले में भारत में पालन किया गया था. उन्होंने कहा, “मैं पिछली बार वर्चुअल सुनवाई पर था और कर्नाटक एडवोकेट जनरल ने कहा कि कुछ छात्रों द्वारा भगवा शॉल पहनने की मांग के बाद सरकारी आदेश जारी किया गया था और उस संदर्भ में प्रतिबंध लगाया गया था. यहां सवाल यह है कि क्या आदेशों को अनुमति दी जा सकती है?”
सार्वजनिक व्यवस्था की बातः SC
जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि सार्वजनिक रूप से हिजाब पहनने से किसी को ठेस नहीं पहुंचती, लेकिन अगर आप इसे स्कूल में पहनते हैं तो मतलब यह है कि आप सार्वजनिक व्यवस्था की बात कर रहे हैं. जस्टिस गुप्ता ने याचिकाकर्ता के वकील कामत से कहा कि आप बेंच का समय ना बर्बाद करें, सार्वजनिक व्यवस्था पर बात करें.
कामत ने कहा कि यह एक आधार नहीं हो सकता है कि सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन किया जाएगा. आपका कर्तव्य है कि आप ऐसा माहौल बनाएं जहां भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार अपने अधिकार का प्रयोग मेरा मुव्वकिल कर सके. उन्होंने आगे कहा कि भगवा शॉल पहनना जानबूझकर एक धर्म का प्रदर्शन है, इसे आर्टिकल 25 के धार्मिक स्वतंत्रता के तहत नहीं रखा जा सकता. रुद्राक्ष और नमाम (एक तरह का माथे पर लगाया जाने वाला तिलक) से भगवा शॉल से तुलना नहीं की जा सकती.
वकील कामत ने कहा कि अब सवाल है कि क्या जनता में एकरूपता हिजाब पर प्रतिबंध लगाने का आधार हो सकती है, क्या हिजाब अनुशासन का उल्लंघन करता है. ऐसा नहीं है. कामत ने कहा कि फैसले में हाईकोर्ट एक खतरनाक क्षेत्र को छू चुका है और ये सभी अधिकार एक-दूसरे पर निर्भर हैं. इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने भी इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया है.
इस पर जस्टिस धूलिया ने कहा कि आपके अनुसार अनुच्छेद 25 में आवश्यक धार्मिक प्रथा को नहीं देखा जाना चाहिए? जिसके जवाब में कामत ने कहा कि हमें पहले देखना होगा कि क्या यह एक वैध संवैधानिक प्रतिबंध है?