नईदिल्ली I पूरे 70 साल बाद एक बार फिर भारत की धरती पर चीतों की वापसी हुई है. छत्तीसगढ़ के जिस शाही परिवार पर आखिरी चीतों का शिकार करने के आरोप लगाए जाते हैं, उसने इन दावों को सिरे से खारिज किया है. इसके साथ ही ये भी कहा है कि भारत में 1947 के बाद भी चीते देखे गए. उन्होंने ये भी कहा कि शाही परिवार लोगों की सुरक्षा करता था. कोई शिकार मनोरंजन के लिए नहीं करते थे. सिर्फ आदमखोर वन्य जीवों से बचाने के लिए शिकार करना पड़ता था.
बता दें कि शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर राष्ट्रीय उद्यान (KPNP) में आठ चीतों (पांच मादा और तीन नर) को छोड़ा है. इस दिन को ऐतिहासिक बताया जा रहा है. दरअसल, साल 1952 में आधिकारिक तौर पर भारत के जंगल चीता मुक्त हो गए थे. दावा किया जाता है कि आखिरी चीते को छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले में वहां के महाराजा ने शिकार के लिए मार डाला था. उसके बात से भारत के जंगलों में चीतों को खोजने के प्रयास हुए, लेकिन कहीं कोई चीता नहीं मिला.
1947 की एक तस्वीर इंटरनेट मीडिया पर वायरल
अंबिका, राजा रामानुज प्रताप सिंह देव की पोती हैं. दरअसल, राजा रामानुज प्रताप सिंह का एक तस्वीर इंटरनेट मीडिया पर वायरल है. ये तस्वीर 1947 की है, जिसमें तीन मृत चीतों के साथ राजा को देखे जाने का दावा किया जा रहा है. कहा जाता है कि इस शिकार की घटना के बाद भारत में एशियाई चीते विलुप्त हो गए थे.
अंबिका ने सुनाए बचपन के किस्से
अंबिका बताती हैं कि उनका जन्म 1968 में हुआ था और उनके दादा का 10 साल पहले यानी 1958 में निधन हो गया था, लेकिन उन्हें कई किस्से सुनाए गए. अंबिका ने अपने बचपन की यादों को शेयर किया और बताया कि कैसे वह अपने पूर्वजों के शिकार अभियानों समेत कई किंवदंतियों / कहानियों के साथ बड़ी हुईं.
शिकार मनोरंजन के लिए नहीं होते थे
अंबिका ने कहा- ‘1940 में एक बार जब मेरे दादा राज्य से बाहर थे, तब एक आदमखोर बाघ आ गया और ग्रामीणों के बीच दहशत पैदा हो गई. लोगों की सूचना पर मेरे पिता महेंद्र प्रताप सिंह ने मोर्चा संभाला और अंततः शिकारी का शिकार किया गया. पिताजी उस समय बमुश्किल 12 साल के थे.’ उन्होंने बताया कि मीडिया और फिल्मों में शिकार अभियानों को जिस तरह से दिखाया जाता है, वो ठीक विपरीत होता है. शिकार हमेशा मनोरंजन के लिए नहीं होते थे.
लोगों को आदमखोर जानवरों से बचाते थे
उन्होंने कहा कि सिर्फ आदमखोर जानवरों का शिकार ही शाही परिवार के लोग करते थे. साथ में ब्रिटिश अधिकारी भी तैनात होते थे. कई बार ग्रामीण आदमखोर जानवरों से छुटकारा पाने के लिए राज परिवार से मदद के लिए संपर्क करते थे. कल्पना कीजिए, उन दिनों घने जंगली इलाके में इतने सारे जंगली जानवरों के साथ जीवित रहना कितना मुश्किल काम रहता होगा. अंबिका ने कहा कि कभी भी बेवजह हत्याएं या बेवकूफी वाले खेल नहीं खेले गए.
1920 में टेलीफोन लाइनें बिछवाईं, ताकि लोग सूचना दे सकें
कोरिया शाही परिवार की वंशज अंबिका ने स्वतंत्रता से पहले मानव और पशु संघर्ष की गंभीरता पर भी बात की. उन्होंने कहा कि उनके दादा (राजा रामानुज प्रताप सिंह देव) ने 1920 के दशक में दूर-दराज के इलाकों में टेलीफोन लाइनें स्थापित कीं, ताकि ग्रामीण / अधिकारी प्रशासन को जानवरों के हमले के बारे में सूचित कर सकें.
जहां आज भी मोबाइल सिग्नल नहीं…
अंबिका ने अपने परिवार पर चीतों को विलुप्त करने के आरोपों का खंडन किया और कहा- ‘1947 के बाद भी कुछ वर्षों तक चीतों को देखा गया.’ उन्होंने कहा- ‘जिन इलाकों में मेरे दादाजी ने वन्यजीव SoS टेलीफोन बूथ स्थापित किए थे, वहां आज भी आपको मोबाइल सिग्नल नहीं मिलेंगे, ऐसा घना हरा आवरण छाया रहता है.
अंबिका ने जताई एक चिंता…
वहीं, चीतों के पुनर्वास के बारे में पूछे जाने पर अंबिका ने इस परियोजना की तारीफ की और कहा- इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और राज्य के राजस्व में भी बढ़ोतर होगी. हालांकि, उन्होंने आशंका भी जताई है कि अफ्रीकी चीता यहां घने वन क्षेत्र के माहौल में खुद को कैसे ढाल पाएंगे, क्योंकि वे अफ्रीका के मैदानी घास के मैदानों में ज्यादा विचरण करते देखे जाते हैं.