छत्तीसगढ़

पति की सहमति के बगैर मुस्लिम महिलाओं को ‘खुला’ के जरिये तलाक लेने का है पूरा अधिकार- केरल हाई कोर्ट

नईदिल्ली I मुस्लिम महिलाएं ‘खुला’ प्रक्रिया के जरिये बगैर अपने पति की सहमति के तलाक ले सकती हैं, केरल हाई कोर्ट ने अपने अप्रैल 2021 के फैसले को दोहराते हुए यह कहा. कोर्ट में ‘खुला’ के संबंध में एक पुनर्विचार याचिका दायर की गई थी. 

याचिका में कहा गया था कि अगर मुस्लिम पत्नी शादी खत्म करना चाहती है तो उसे पति से तलाक मांगना होगा और अगर वह मना कर देता है तो महिला को काजी या कोर्ट के पास जाना होगा. हालांकि, याचिकाकर्ता ने माना कि एक मुस्लिम महिला को अपनी मर्जी से तलाक मांगने का अधिकार है लेकिन यह भी तर्क दिया कि उसे ‘खुला’ का कोई पूर्ण अधिकार नहीं है. उसने तर्क दिया कि दुनिया में कहीं भी एक मुस्लिम पत्नी को एकतरफा शादी को खत्म करने की अनुमति नहीं है.

क्या कहा अदालत ने?

मंगलवार (1 नवंबर) को जस्टिस ए मोहम्मद मुस्ताक और जस्टिस सीएस डायस की खंडपीठ ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को ‘खुला’ प्रक्रिया के जरिये पति की सहमति के बगैर तलाक लेने का पूरा अधिकार है, जो उसे पवित्र कुरान से दिया गया है और यह उसके पति की स्वीकृति या इच्छा के अधीन नहीं है. बेंच ने कहा कि अगर पति खुला से इनकार करता है तो मुस्लिम महिला को अदालत का दरवाजा खटखटाने की बिल्कुल जरूरत नहीं है क्योंकि उसका अधिकार इस्लामी कानून में स्वीकार किया गया है. 

अदालत ने यह भी कहा कि अगर कुछ शर्तें पूरी होती हैं तो खुला वैध होगा. पहली यह कि पत्नी की ओर से ‘खुला’ की घोषणा की जाए. दूसरी यह कि वैवाहिक बंधन के दौरान प्राप्त दहेज या किसी अन्य भौतिक लाभ को वापस करने का प्रस्ताव दिया जाए. हालांकि, 2021 के फैसले में अदालत ने कहा था कि अगर पत्नी ‘खुला’ की घोषणा के समय विवाह के निर्वाह के दौरान प्राप्त दहेज या अन्य किसी भौतिक लाभ को वापस नहीं भी करती है तो भी ‘खुला’ का अधिकार अमान्य नहीं हो सकता है. तीसरी शर्त यह कि खुला की घोषणा से पहले सुलह का एक प्रभावी प्रयास किया गया हो. 2021 में भी कोर्ट ने सुलह के प्रयास वाली बात कही थी.

9 अप्रैल 2021 का फैसला

9 अप्रैल 2021 को केरल हाई कोर्ट ने ‘खुला’ प्रक्रिया को लेकर 49 साल पुराने यानी 1972 के अपने एक फैसले को पलट दिया था. फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि अदालतों के हस्तक्षेप के बिना एक मुस्लिम महिला अपने पति को एकतरफा तलाक तब दे सकती है जब अनुबंध में पति ने अपनी पत्नी को तलाक का अधिकार सौंप रखा हो. दूसरा तरीका आपसी सहमति से तलाक का है, जिसे ‘मुबारत’ कहते हैं. एक तरीका ‘खुला’ प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया को पत्नी की ओर से शुरू किया गया तलाक कहा जा सकता है.

केरल हाई कोर्ट ने इस बात का भी जिक्र किया था कि पत्नी को ‘खुला’ के लिए अदालत जाने के लिए मजबूर करना व्यक्तिगत कानून में उसके लिए निर्धारित किए गए अधिकार को विफल करना है, जो कि काफी हद तक दो प्राथमिक स्रोतों- कुरान और हदीस पर आधारित है. अदालत ने कहा था कि ‘खुला’ में पति की स्वीकृति सही नहीं है. कोर्ट ने कहा था कि ‘खुला’ का अधिकार मुस्लिम पत्नी को दिया गया एक ‘पूर्ण अधिकार’ है और इसे लागू करने के लिए किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं है.

1972 के इस फैसले को कोर्ट ने पलट दिया था

6 सितंबर 1972 को हाई कोर्ट में जस्टिस वी खालिद की बेंच ने केसी मोयिन बनाम नफीसा और अन्य के एक मामले को लेकर फैसला सुनाया था. इसमें कहा गया था, ”इस आपराधिक अपील में यह सवाल उठाया गया है कि क्या मुस्लिम पत्नी मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 के प्रावधानों के तहत अपने पति के साथ विवाह को अस्वीकार कर सकती है? 1939 का अधिनियम VIII जिस रूप में संदर्भित है, उसे देखते हुए मेरा जवाब ‘नहीं’ में है. मेरे अनुसार, अधिनियम के प्रावधानों के अलावा, किसी भी परिस्थिति में पत्नी के कहने पर मुस्लिम विवाह को भंग नहीं किया जा सकता है.”

‘खुला’ को लेकर किसे आपत्ति?

‘खुला’ को लेकर मुस्लिमों में एक धड़े, विशेषकर हनाफी स्कूल के उलेमाओं ने यह व्याख्या की है कि इस प्रक्रिया के तहत महिला तभी तलाक ले सकती है जब पति उसके अनुरोध को स्वीकार कर ले. अगर पति मना कर देता है तो महिला के पास मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 के प्रावधानों के तहत अदालत का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.

वहीं, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पिछले वर्ष ‘खुला’ के संबंध में अदालत के फैसले का स्वागत तो किया था लेकिन पति की इजाजत के बिना प्रक्रिया को एकतरफा-कसरत बताया था. बोर्ड ने कहा था कि ‘खुला’ प्रक्रिया में पति की स्वीकृति एक शर्त है. अदालत ने कहा था कि कुरान एक मुस्लिम पत्नी को एक प्रक्रिया निर्धारित किए बिना उसकी शादी को रद्द करने के लिए ‘खुला’ का अधिकार देता है.