मुंबई। अगस्त 1947 में देश की आजादी जहां अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की खबर लाई। वहीं, देश विभाजन के बाद दिलों के विभाजन की व्यथा, अमन चैन की लूट और पीड़ा का एक नया युग शुरू हुआ। देश में अशांति छा गई थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी विरोध के सुर सुनने पड़े थे।
30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। यह फिल्म उसी त्रासदी का काल्पनिक विस्तार है। असगर वजाहत के नाटक ‘गोडसे@गांधी.काम’ पर आधारित यह फिल्म गोडसे और गांधी को एक मंच पर लाकर उन पर लगे आरोप प्रत्यारोपों को प्रदर्शित करती है, जिसमें विचारों का भीषण युद्ध होता है।
कहानी का आरंभ भारत पाकिस्तान के विभाजन की त्रासदी को दिखाने से होता है। हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। सांप्रदायिक दंगों की आग में देश जल रहा है। गांधी का विरोध हो रहा है। देश के हालात से राष्ट्रपिता व्यथित चल रहे हैं। वहीं, दूसरी ओर गोडसे इनकी वजह महात्मा गांधी को मानता है।
आखिरकार वह गांधी की हत्या कर देता है। पुणे से अखबार निकालने वाले गोडसे को गिरफ्तार कर लिया जाता है। उधर महात्मा की जान बच जाती है। उसके बाद किस तरह गांधी और गोडसे आमने-सामने आते हैं, फिल्म इस संबंध में हैं।
इस फिल्म का स्क्रीनप्ले और निर्देशन राजकुमार संतोषी का है। करीब नौ साल बाद उन्होंने निर्देशन में वापसी की है। यह फिल्म अनोखा प्रयोग है। यह दर्शाती है कि अगर गांधी बच जाते तो वह देश को क्या दिशा देते। राजकुमार संतोषी ने गांधी पर लगे आरोपों और उनके दर्द को उकेरा है।
फर्स्ट हाफ में फिल्म थोड़ा धीमी गति से आगे बढ़ती है। उसमें हिंदू मुस्लिम के बीच सद्भाव बनाने को लेकर उनके आमरण अनशन को भी शामिल किया गया है। मध्यांतर के बाद गोडसे और गांधी के आमने-सामने आने पर उनकी विचारधाराओं के टकराव के दृश्य हैं। हालांकि, यह वाकयुद्ध युद्ध सम्मोहक नहीं बन पाया है। पर कई जानकारियों से अवगत कराता है।
ग्राम स्वराज आंदोलन के माध्यम से यह फिल्म गांधीजी के ऊंच-नीच, अस्पृश्यता और जातिवाद जैसे सामाजिक मुद्दों, आर्थिक, मानवीय शोषण को दूर करने और समानता और न्याय स्थापित करने के प्रयासों को भी छूती है। वहीं, लड़का-लड़की के प्रेम को विकार मानने वाली बापू की सोच को भी आलोचनात्मक तरीके से दर्शाया है।
एक दृश्य में बा (कस्तूरबा गांधी) कहती हैं कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से उनके साथ गलत किया था। जयप्रकाश नारायण और प्रभा देवी के वैवाहिक जीवन को बर्बाद कर दिया। अपने बेटे का जीवन नर्क बना दिया था। फिल्म में नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद जैसे नेताओं को उनकी वेशभूषा से पहचाना जा सकता है, लेकिन बाकी का नाम ना लेने से उन्हें पहचानने में बहुत सारे लोगों को दिक्कत हो सकती है।
गांधी की भूमिका में दीपक अंतानी ने महात्मा के संघर्ष, अंर्तद्वंद्व और उनकी कार्यशैली को समुचित तरीके से आत्मसात किया है। उनकी मुस्कान बापू से मेल खाती दिखती है। वहीं, चिन्मय मांडलेकर ने देश विभाजन की त्रासदी से आक्रोशित गोडसे की भूमिका को जीवंत किया है।
इस फिल्म से राजकुमार संतोषी की बेटी तनीषा ने अभिनय में कदम रखा है। सुषमा की मासूमियत, भावनाओं और गांधी के प्रति उनके सम्मान को तनीषा ने बहुत शिद्दत से निभाया है। इस फिल्म से अनुज सैनी को भी लांच किया गया है। हालांकि, उनके हिस्से में कुछ खास नहीं आया है।
सिनेमेटोग्राफर ऋषि पंजाबी ने उस दौर को कैमरे में समुचित तरीके से कैद किया है। बहरहाल, देश के इतिहास को कल्पना के चश्मे से देखे जाने के लिए यह रोचक और साहसिक प्रयास है।
प्रमुख कलाकार: दीपक अंतानी, चिन्मय मांडलेकर, तनीषा संतोषी, अनुज सैनी
निर्देशक: राजकुमार संतोषी
अवधि: 110 मिनट
स्टार: तीन