छत्तीसगढ़

कुरुक्षेत्र: हरियाणा की जीत और सबक से तय होगी मोदी राहुल की अगली सियासत, महाराष्ट्र-झारखंड में रोचक मुकाबले

नईदिल्ली : जम्मू कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देश का राजनीतिक तापमान एकाएक गरम हो गया है। हरियाणा में कांग्रेस की अप्रत्याशित हार और जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के शानदार प्रदर्शन ने इंडिया गठबंधन में सहयोगी दलों को कांग्रेस पर मुखर होने का जो मौका दिया है उससे कांग्रेस पर फिर वैसा ही दबाव बन गया है जैसा कि नवंबर दिसंबर 2023 में तीन राज्यों मध्य प्रदेश छत्तीस गढ़ और राजस्थान की चुनावी हार के बाद बना था। नतीजा कांग्रेस ने अपने रुख को लचीला बनाया और लोकसभा चुनावों में सहयोगियों के साथ बेहतर तालमेल करके भाजपा को 240 और एनडीए को 293 पर रोक दिया। उधर हरियाणा की चौंकाने वाली जीत और जम्मू कश्मीर में पिछली बार से ज्यादा सीटों की जीत ने भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फिर से पिछले साल के आखिर में तीन राज्यों की जबर्दस्त जीत जैसा सियासी टॉनिक फिर दे दिया है।

वहीं ये नतीजे नेता विपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए भी फिर वैसा ही सबक हैं जैसा उन्हें 2023 में तीन राज्यों की हार के बाद मिला था। अब अगले ही महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनावों के लिए तैयार हो रहे दोनों दल इन नतीजों से कैसा फायदा उठा पाते हैं इन राज्यों के चुनाव नतीजे इससे तय होंगे।

मोदी सरकार-तीन जिसे अब एनडीए सरकार भी कहा जा रहा है के डेढ़ सौ दिन होने जा रहे हैं। लेकिन इस बार जब सरकार के सौ दिन पूरे हुए तब सरकारी प्रचार उतने जोर शोर से नहीं हुआ जैसा कि नरेंद्र मोदी के पिछली दो सरकारों के सौ दिन पूरे होने पर हुआ था। इसे समझा जा सकता है क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने सरकार तो बनवा दी लेकिन हनक कमजोर कर दी थी। लेकिन हरियाणा के नतीजे मोदी सरकार की हनक वापस लाने में मददगार हो सकते हैं बशर्ते कि भाजपा अगले महीने संभावित महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में ऐसा ही प्रदर्शन दोहरा सके। क्योंकि हरियाणा में भाजपा के सामने जितनी कड़ी चुनौती थी उतना ही आसान यह भी था कि उसका मुकाबला उस कांग्रेस से था जो जीती हुई बाजी आसानी से हारना जानती है जबकि महाराष्ट्र में उसे कांग्रेस के साथ साथ उन दो क्षत्रीय दलों शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शऱद पवार) की मिली जुली ताकत से भिडना है जिनके लिए यह चुनाव उनके सियासी वजूद का सवाल हैं। साथ ही हरियाणा में भाजपा अपने दम पर अकेले लड़ रही थी और लोकसभा चुनावों में पांच सीटें गंवाने के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले विधानसभा सीटों और मत प्रतिशत में थोड़ा आगे थी।

जबकि महाराष्ट्र में उसके अपने दो सहयोगी शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) के साथ सीटों के बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक बेहतर तालमेल बिठाना होगा और उन गड्ढों को भरना होगा जो मौजूदा शिंदे सरकार के जमाने में पैदा हो गए हैं। क्योंकि लोकसभा चुनावों में भाजपा के गठबंधन (एनडीए) को कांग्रेस गठबंधन (इंडिया) के मुकाबले सीटों और मत प्रतिशत दोनों का नुकसान हुआ और विधानसभा सीटों पर भी इंडिया गठबंधन का महाविकास अघाड़ी एनडीए गठबंधन के महायुति से आगे था। इसलिए महाराष्ट्र की चुनौती हरियाणा से ज्यादा कठिन है। जबकि झारखंड में मुकाबला बराबरी का बताया जा रहा है।

उधर हरियाणा के नतीजों ने भाजपा औऱ उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ पिछले कुछ समय से रिश्तों में आई खटास को भी मिठास में बदलने का सिलसिला शुरु कर दिया है। दोनों के बीच बढ़ी दूरी की वजह से ही शायद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल पूरे होने के बावजूद अभी तक भाजपा के नए अध्यक्ष के नाम पर कोई फैसला नहीं हो सका है। लोकसभा चुनावों के बाद जिन नामों पर मीडिया में कयास लग रहे थे उनमें ज्यादातर केंद्र सरकार में मंत्री बन चुके हैं और जो नहीं बने हैं उनके नाम भी अब चलने बंद हो गए हैं। माना जा रहा है कि यह देर इसलिए भी हो रही है कि भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच नए अध्यक्ष के नाम पर अभी तक सहमति बन नहीं सकी है। वैसे भी चुनाव नतीजों के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के सांकेतिक बयानों ने भी सरकार और संघ के बीच सब कुछ ठीक न होने का संदेश भी लगातार दिया है। अटकलें तो यहां तक चली हैं कि संघ प्रमुख इस बार घनघोर मोदी विरोधी माने जाने वाले पर संघ नेतृत्व के दुलारे पूर्व संगठन महासचिव संजय विनायक जोशी को भाजपा अध्यक्ष बनाना चाहता है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और दूसरे भाजपा नेता इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। लेकिन हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के पीछे एक बड़ा कारण चुनावों में संघ के पूरे तंत्र का भाजपा के पक्ष में सक्रिय हो जाना भी माना जा रहा है।

कहा तो यह भी जा रहा है कि अघोषित रूप से संघ नेतृत्व ने संजय जोशी को भी हरियाणा में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने का निर्देश दे दिया था और पर्दे के पीछे रह कर जोशी ने भी काम किया है। नतीजे जहां एक तरफ जहां मोदी के करिश्मे की कमी के भ्रम को दूर करने में मदद करेंगे वहीं इस तथ्य को भी स्थापित कर रहे हैं कि भले ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनावों में यह कहा हो कि भाजपा अब इतनी बड़ी हो गई है कि उसे चुनाव जीतने के लिए संघ की जरूरत नहीं रह गई है, लेकिन हकीकत ये है कि बिना संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं और अन्य संगठनों के तंत्र की मदद के लिए भाजपा सिर्फ एक मोदी के चेहरे और अपनी रणनीति से चुनाव नहीं जीत सकती है। यानी मोदी का करिश्मा और संघ की ताकत दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही बात अब इनके बीच की कथित दूरी को खत्म कर सकती है। ये दूरी खत्म हुई या नहीं या फिर कितनी कम हुई इसका सबसे बड़ा पैमाना होगा कि भाजपा का नया अध्यक्ष कौन बनता है। क्या संघ पूरी तरह अपनी पसंद के व्यक्ति को अध्यक्ष बनवा पाएगा या मोदी शाह की पसंद के आगे संघ कमजोर पड़ेगा या फिर दोनों पक्षों के बीच इस मुद्दे पर कोई सहमति बनेगी।

उधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सर्वोच्च न्यायालय से जमानत के बाद जिस तरह केजरीवाल ने नाटकीय तरीके से मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा देकर मंत्री आतिशी मारलेना को अपना उत्तराधिकारी बनाया है उसने भी भाजपा के सामने दिल्ली में नई चुनौती पेश कर दी है। हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की चुनौती को तो भाजपा ने अपनी जीत से बेकार कर दिया है लेकिन अभी महाराष्ट्र झारखंड और उसके बाद दिल्ली में विपक्षी इंडिया गठबंधन की चुनौती बरकरार है। इसको कमजोर करने के लिए ही सरकार ने अपने पिटारे से एक देश एक चुनाव वाली कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंत्रिमंडल की मंजूरी देकर संसद के अगले सत्र में इसे विधेयक के रूप में लाने का साफ संकेत दे दिया है। ये राजनीति में अपने मुद्दों की माहौलबंदी की एक कवायद है। इसका संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में भी दे दिया था कि भले ही उनकी सरकार इस बार सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी हो लेकिन सरकार अपने दोनों एजेंडों एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता पर कदम वापस नहीं खींचेगी और इसी कार्यकाल में इन दोनों पर आगे बढ़ेगी। कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को मंजूर करके मोदी सरकार ने इस ओर एक कदम बढ़ा दिया है। एक देश एक चुनाव को मौजूदा संसद किस रूप में लेगी इसे देखने के बाद ही मोदी सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के अपने भाषण में सेक्युलर सिविल कोड भी कहा था, के अपने अगले एजेंडे पर काम करेगी।

कुल मिलाकर कांग्रेस को हरियाणा की हार की कीमत अपने सहयोगियों के सामने नरम होकर चुकानी पड़ेगी क्योंकि उसके लिए भाजपा को महाराष्ट्र झारखंड और दिल्ली में हराना बेहद जरूरी है वरना लोकसभा चुनावों से विपक्ष के हक में बना माहौल पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगा और इंडिया गठबंधन के बिखरने का खतरा भी बढ जाएगा। इससे सबसे ज्यादा नुकसान होगा राहुल गांधी की छवि को जो बमुश्किल उनकी दोनों भारत यात्राओं के बाद न सिर्फ सुधरी बल्कि उससे पार्टी और विपक्ष को चुनावी फायदा भी हुआ। अब उसके सामने राहुल की छवि और विपक्षी गठबंधन को बनाए और बचाए रखने की कड़ी चुनौती है। इसलिए अगर कांग्रेस ने हरियाणा से सबक लेकर महाराष्ट्र और झारखंड में अपनी रणनीति, अपने संगठन और उम्मीदवारों के चयन के साथ साथ मुद्दों और प्रचार को दुरुस्त कर लिया वह महाराष्ट्र झारखंड में कामयाबी से हरियाणा की हार के झटके से उबर सकती है लेकिन अगर कोई सबक नहीं लिया तो पिछले दो सालों में राहुल गांधी द्वारा की गई मेहनत पर पानी फिर सकता है। अब यह कांग्रेस और राहुल गांधी को तय करना है कि उन्हें किस रास्ते जाना है।