छत्तीसगढ़

‘सरदार पटेल ने भारत के विभाजन की मांग पर भरी पहली हामी’, एकता के नहले पर दानिश खान का दहला

मुंबई। यह महज एक संयोग भी हो सकता है और एक सोची समझी योजना भी लेकिन हिंदी मनोरंजन जगत में ऐसे संयोग कम ही हुए हैं। निर्माता एकता कपूर की गोधरा कांड पर बनाई डॉक्यू ड्रामा फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ सिनेमाघरों में हैं और निर्माता दानिश खान की बनाई वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ सोनी लिव ओटीटी पर। दोनों में विचारों की दो अलग अलग धाराएं हैं। ‘द साबरमती रिपोर्ट’ की तारीफ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों कर चुके हैं। वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ को उस कांग्रेस के नेताओं ने शायद अभी तक देखा भी नहीं है जिसके आजादी से ठीक पहले के अंतर्द्वद्व ये सीरीज बहुत ही शालीन लेकिन खोजपरक तरीके से दर्शकों के सामने लाई है। नई पीढ़ी को इसे देखना बहुत जरूरी है।

Freedom At Midnight Review by Pankaj Shukla Sony Liv Nikkhil Advani Sidhant Gupta Chirag Vohra Rajendra Chawla

वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू 

जिसका जितना बजट, उसका वैसा इतिहास
डॉमिनिक लैपियरे और लैरी कॉलिंस की लिखी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ अपने समय की बहुत चर्चित किताब इस मायने में रही है कि ये इतिहास की कई ऐसी बातें बताती है जो अमूमन स्कूलों में पढ़ाई नहीं जाती। इतिहास वैसे भी इन दिनों स्कूलों में कम और फिल्मों में ज्यादा पढ़ाया जा रहा है। जिसके पास जितना पैसा है, वह उतना ही भव्य इतिहास बना रहा है, दिखा रहा है। संजय लीला भंसाली सौ करोड़ रुपये लगाकर ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ और करीब 400 करोड़ रुपये खर्चकर ‘हीरामंडी’ का इतिहास दिखा रहे हैं। एकता कपूर की आर्थिक हालत इन दिनों खस्ता है तो वह 50 करोड़ में ‘द साबरमती रिपोर्ट’ दिखा रही हैं। और, इससे भी कहीं कम बजट में सोनी लिव के दानिश खान ‘फ्रीडम एड मिडनाइट’ दिखा रहे हैं। बजट कम है तो इतिहास के चेहरों को अपने चेहरों पर चढ़ाने वाले कलाकार भी नामी गिरामी नहीं हैं। ‘जुबली’ वाले सिद्धांत गुप्ता हैं। आर जे मलिश्का हैं। आरिफ जकारिया हैं, इरा दुबे हैं और हैं चिराग वोरा व राजेंद्र चावला।

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वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू 

जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी में हारे नेहरू
अगर आपने भारत की आजादी पर बनी फिल्में, सीरीज पहले देख रखी हैं तो गांधी के तौर पर बेन किंग्सले का आपके जहन से निकल पाना नामुमकिन है। कुछ कुछ ऐसा ही ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू के लिए रोशन सेठ कर चुके हैं और पटेल के लिए परेश रावल फिल्म ‘सरदार’ में। तीनों किरदारों के साथ साथ जिन्ना का जुड़ना लाज़िमी ही है। लेकिन, आरिफ जकारिया यहां इस कास्टिंग में सौ फीसदी सही बैठे हैं। कास्टिंग का मसला चूंकि सीधे पैसे से जुड़ा है तो उस पर न जाते हुए ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ पर आते हैं। ये सीरीज वहां से शुरू होती है जहां जिन्ना का ‘डायरेक्ट एक्शन’ अमल में आता है और वह अंग्रेजों के सामने अपनी दादागिरी साबित करने में सफल होता है। नेहरू मुल्क का बंटवारा धर्म के हिसाब से करने के सख्त खिलाफ हैं। पटेल इसमें हर्ज नहीं मानते। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में इस पर वोटिंग होती है और सारे लोग पटेल के पक्ष में हैं। गांधी को आने वाले दिनों की मुश्किलों का इल्हाम हो जाता है।

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वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू 

गांधी के बराबर होने के सपने ने बांटा देश
वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ की अपने उपन्यास की तरह खासियत यही है कि ये मुल्क की आजादी के साथ साथ इसके बंटवारे के लिए चल रही सियासत के बीच इसके मुख्य किरदारों के आपसी रिश्तों, रवायतों और सेहत की बात करती चलती है। पटेल, गांधी, नेहरू, जिन्ना सबको कोई न कोई दिक्कत है। याद रखने वाली बात यहां ये है कि जिन्ना को पता चल गया था कि वह साल भर से ज्यादा बचेगा नहीं, लेकिन ये बात वह बतौर वकील अपने डॉक्टर को किसी दूसरे को बताने से मना कर देता है। 1948 में जिन्ना भी मरा, और 1948 में ही गांधी भी। जिन्ना की पूरी लड़ाई बस खुद को गांधी के बराबर का साबित करने की रही। उनकी बराबरी का दर्जा उसे हासिल भी हुआ लेकिन उसके मुल्क को क्या हासिल हुआ, ये इतिहास जानता है।

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वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू

बजट बढ़ाया होता तो बनती कालजयी सीरीज
निखिल आडवाणी की हालिया रिलीज फिल्म ‘वेदा’ के सताए लोग इस सीरीज को देखने की शुरुआत करने में भी हिचक रहे होंगे, लेकिन सीरीज देखनी चाहिए। बहुत बाकमाल सीरीज भले न बनी हो लेकिन इसकी बुनावट अच्छी है। निर्देशन अच्छा है। कहानी की रफ्तार अर्थात पटकथा की चुस्ती बढ़िया है। प्रोडक्शन डिजाइन ने इसे अपने कालखंड के हिसाब से ही बेरंग और रंगीन होने की सहूलियत दी है और बहुत कम होता है कि आधा दर्जन लेखक मिलकर कुछ लिखें और सब के सब एक सम पर रहें। इस मामले में भी सोनी लिव दाद का हकदार है। इस सीरीज को बनाने का असल क्रेडिट और डिसक्रेडिट दोनों सौगत मुखर्जी को जाना चाहिए। क्रेडिट इस बात का कि वह इस किताब पर सीरीज बनाने के अधिकार खरीद लाए और फिर निखिल इस सीरीज में आए। और, डिसक्रेडिट इस बात का कि बजट में कंजूसी करके उन्होंने एक फाइव स्टार सीरीज बन सकने लायक परियोजना को बस तीन स्टार पर लाकर अटका दिया।

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वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू 

आरिफ जकारिया की अदाकारी नंबर वन
सोनी लिव की मजबूरियां जो भी रही हों इस सीरीज की कास्टिंग को लेकर लेकिन जिन कलाकारों ने इसी का फायदा पाकर अपनी जो जगह इस सीरीज के जरिये दर्शकों के दिलों में बनाई है वह बरसों बरस इसे देखने वालों को याद रहेगी। जिन्ना के किरदार में आरिफ जकारिया सारे कलाकारों में अव्वल नंबर हैं। उनकी एक नंबर की अदाकारी सीरीज की शुरुआत में इसको मजबूत सहारा देती है। गांधी के किरदार में चिराग वोहरा को देखते रहना और लगातार देखते रहना, बताता है कि चिराग ने इस किरदार के लिए शानदार समर्पण दिखाया है। चरखा कातते समय उधारे बदन बैठे चिराग भले गांधी की उम्र के न लगे हों लेकिन बाकी जगह उनका काम सम्मान सहित उत्तीर्ण होने लायक है। तारीफ सिद्धांत गुप्ता की भी जरूरी है क्योंकि इस लड़के ने ‘जुबली’ की ब्लॉकबस्टर सफलता के बाद ये किरदार करने को हामी भरी। किसी ने उनकी बॉडी लैंग्वेज पर शूटिंग से पहले काम कर लिया होता तो ये सिद्धांत का ऐसा किरदार होता जिसे लोग बरसों बरस याद रखते।

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वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ रिव्यू 

मलय और आशुतोष ने जीत लिए दिल
वेब सीरीज ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के मुख्य कलाकारों में आरिफ के बाद जिस कलाकार ने बेहतरीन काम किया है, वह हैं पटेल के किरदार में राजेंद्र चावला। नई सराकर बनाने की चर्चा के बाद जब पटेल और नेहरू महल की भूल भुलैया में खोते हैं तो वह दृश्य तनाव के पलों में भी रक्तचाप पर काबू बनाए रखने का बढ़िया उदाहरण है। सरोजिनी नायडू की भूमिका में मलिश्का की कास्टिंग औसत है। उनका काम भी बहुत प्रभावी नहीं लगा। इरा दुबे का काम भी जिन्ना की बहन के रोल में बेहतर हो सकता था। सीरीज की सिनेमैटोग्राफी मलय प्रकाश ने बहुत ही उम्दा की है। दृश्य और प्रकाश का उनका संयोजन बिल्कुल किसी टेक्स्ट बुक जैसा है। काम उनका ‘वेदा’ में भी अच्छा था लेकिन वह फिल्म ही खराब थी। उन पर भविष्य के सिनेमा की नजर अभी से टिकी है। आशुतोष फटाक का ब्लू फ्रॉग यहां भी मस्त उछला है। कहानी के कालखंड के हिसाब से उनकी टीम ने खूब स्वर लहरियां सजाई हैं।