नईदिल्ली : पॉल अलेक्जेंडर जिन्हें पोलियो पॉल के नाम से भी जाना जाता था उनकी 78 साल की उम्र में निधन हो गया है. पॉल अलेक्जेंडर के खास दोस्त डैनियल स्पिंक्स ने बताया कि पॉल की डलास हॉस्पिटल में मृत्यु हो गई है. कुछ दिन पहले ही उन्हें कोविड हुआ था जिसके बाद उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया था. फिलहाल उनके मौत का स्पष्ट कारण नहीं बताया गया है. अब सवाल यह उठता है कि आखिर पॉल अलेक्जेंडर इतने खास क्यों हैं जिसे लेकर हर तरफ चर्चा हो रही है.
पॉल अलेक्जेंडर की मौत के बाद आयरन लंग्स को लेकर खूब चर्चा हो रही है. आखिर ‘आयरन लंग्स’ क्या होता है? और यह काम कैसे करता है? चिकित्सा और इंजीनियरिंग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. जैसे- कैबिनेट रेस्पिरेटर, टैंक रेस्पिरेटर, नेगेटिव प्रेशर वेंटिलेटर और अन्य.लेकिन लगभग एक सदी पहले इसके निर्माण के बाद से यह एक जीवनरक्षक मशीन की तरह काम कर रहा है. जिसे आयरन लंग्स के नाम से जाना जाता है.
आयरन लंग्स क्या है?
नाम सुनने में थोड़ा डरावना लग सकता है देखने में तो यह बिल्कुल ताबूत जैसा मशीन दिखता है. लेकिन यह मशीन कुछ लोगों के लिए किसी जादू से कम नहीं है. 1952 में अमेरिका में जब पोलियो आउटब्रेक हुआ था. पीड़ित में ज्यादातर बच्चे शामिल थे. इसी दौरान पॉल को भी 6 साल की उम्र में पोलियो हो गया था. पोलिया इतना ज्यादा फैल गया था कि पॉल के फेफड़ों को भी खराब कर रहा था . और उन्हें सांस लेने की दिक्कत हो रही थी.
आयरन लंग्स काम कैसे करता है?
1927 में आयरन फेफड़े विकसित किया गया था और पहली बार 1928 में एक नैदानिक सेटिंग में उपयोग किया गया था. जिससे एक पीड़ित छोटी लड़की की जान बचाई गई और जल्द ही कई हजारों लोगों की जान बचाई गई. इसका आविष्कार फिलिप ड्रिंकर ने लुईस अगासीज़ शॉ के साथ हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में किया था. ड्रिंकर विशेष रूप से कोयला-गैस विषाक्तता के लिए उपचारों का अध्ययन कर रहे थे, लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि आयरन लंग्स की मदद से जिन लोगों को सांस लेने की तकलीफ हो रही है या जिनका फेफड़ा खराब हो रह है उनकी भी मदद की जा सकती है. पोलियो पीड़ितों की भी मदद कर सकता है.
आयरन लंग्स दरअसल स्टील से बना होता है. उनका सिर कक्ष के बाहर रहा जबकि एक रबर कॉलर लगा रहता है जिसके जरिए मरीज का सिर बाहर की तरफ निकला होता है. पहला आयरन फेफड़ा एक इलेक्ट्रिक मोटर और कुछ वैक्यूम क्लीनर से वायु पंप के जरिए चलाया जाता था. यह एक वेंटिलेशन (ईएनपीवी) के जरिए काम करती है. यह ऐसा बनाया गया है कि मरीज के लंग्स तक आराम से हवा पहुंच जाएगी और मरीज को जरूरत के हिसाब से ऑक्सीजन मिल जाएगा. भले ही मरीज की मांसपेशियां ऐसा न कर पाए लेकिन फिर भी इस मशीन के अंदर आराम से ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाता है. इस मशीन के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि यह मशीन के अंदर पंप को चालू रखता है और जिसके जरिए मरीज जिंदा रहता है.