नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट ने एक व्यक्ति को 19 साल पुराने मामले में आरोप से बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि 2004 में एक हत्या के लिए साक्ष्य मिटाने के आरोप लगाए गए, लेकिन उसके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला। फिर भी उसने कई वर्षों तक मुकदमे का सामना किया।
दिल्ली हाई कोर्ट ने व्यक्ति को बरी करते हुए कहा, मामला साक्ष्य के कानून के स्थापित सिद्धांतों पर आधारित नहीं था और व्यक्ति ने आपत्तिजनक सुबूत नहीं होने के बावजूद कई वर्षों तक मुकदमे का सामना किया। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने शुरू में याचिकाकर्ता के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया और यहां तक कि प्राथमिकी या प्रारंभिक आरोप पत्र में भी उसका नाम भी नहीं लिया।
यह टिप्पणी करते हुए अदालत ने निचली अदालत के वर्ष 2011 के फैसले को चुनौती देने वाली विजय बहादुर की अपील को स्वीकार कर लिया। विजय को आपराधिक साजिश रचने और सुबूतों को नष्ट करने के लिए दोषी ठहराते हुए एक साल की कैद की सजा सुनाई गई थी।
और क्या कहा कोर्ट ने?
अदालत ने कहा कि जब अपीलकर्ता और अन्य सह-आरोपी हत्या के मूल और मुख्य आरोप से बरी हो गए तो फिर उन्हें सुबूत नष्ट करने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता था। नवंबर 2004 में एक व्यक्ति की शिकायत पर एक मामला दर्ज किया गया था।
टैक्सी बुक करने वाले हुए थे गिरफ्तार
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि उसका ड्राइवर अपनी कार के साथ लापता हो गया था। जांच के दौरान चालक का शव मिला था और शिकायतकर्ता ने उसकी पहचान की थी। टैक्सी बुक करने वाले चार यात्रियों को वर्ष 2004 में गिरफ्तार किया गया था, जबकि बहादुर को वर्ष 2006 में पुलिस ने गिरफ्तार किया था।
अदालत ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य के साथ रिकार्ड पर पेश किए गए सुबूतों पर विचार करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष द्वारा दिए गए सुबूत दोषसिद्धि साबित के लिए अपर्याप्त हैं। ऐसे में याचिकाकर्ता को बरी किया जाता है।