![](https://chhattisgarhvaibhav.com/wp-content/uploads/2023/01/Screenshot_2023-01-29-01-31-18-82_40deb401b9ffe8e1df2f1cc5ba480b12.jpg)
नई दिल्ली। न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर सरकार और न्यायपालिका में चल रही तनातनी के बीच एक नयी बहस छिड़ गई है। कॉलेजियम की ओर से नाम दिए जाने के बाद सरकार के निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय करने को लेकर बहस छिड़ी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश आरएफ नरिमन ने सुझाव दिया कि सुप्रीम कोर्ट को कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ गठित करके एमओपी (जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर)) में जो ढीला ढाली है उसे कसना चाहिए साथ ही उन्होंने कहा कि कॉलेजियम की सिफारिश पर सरकार के निर्णय लेने के लिए 30 दिन की समय सीमा तय होनी चाहिए। अगर इस अवधि में सरकार जवाब नहीं देती तो मान लिया जाए कि उसे कुछ नहीं कहना। लेकिन समय सीमा तय करने को लेकर विशेषज्ञों के अलग अलग विचार हैं।
‘समयसीमा के लिए नहीं हो सकती बाध्यता की शर्त’
विशेषज्ञ इस बात से तो सहमत हैं कि सरकार असीमित अवधि तक अनुशंसा लंबित नहीं रख सकती। एडवाइजरी के तौर पर सरकार के लिए समय सीमा तय की जा सकती है, लेकिन उसमें बाध्यता की शर्त नहीं हो सकती क्योंकि बाध्यता की शर्त विधायिका लेजिस्लेशन का काम है और कानून बनाना संसद का अधिकार क्षेत्र में आता है। जस्टिस रोहिंटन ने एक कार्यक्रम में कहा कि सरकार कम से कम पांच साल के लिए होती है जबकि कॉलेजियम में आने और जाने वालों की दर बहुत अधिक होती है।
उन्होंने कहा कि इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार को जवाब देने के लिए एक समय सीमा तय करे। शायद यह पहला मौका होगा जबकि किसी पूर्व न्यायाधीश ने सरकार के लिए एक समय सीमा तय करने पर इस तरह जोर दिया होगा। लेकिन इस मुद्दे पर किसी समय सरकार का हिस्सा रहे और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को नजदीक से देखने वाले पूर्व विधि सचिव सुरेश चंद्रा का मत जस्टिस नरिमन से भिन्न है। वह कहते हैं कि सिविल प्रोसीजर कोड (सीपीसी) में टाइम लाइन तय है कि केस सुनने के बाद 30 दिन में फैसला देना चाहिए। ये नीचे से ऊपर तक की अदालतों के लिए है लेकिन केस सुनने के बाद लोग छह छह महीने तक फैसला नहीं देते उसका क्या।
‘संसद का अधिकार क्षेत्र है कानून बनाना’
चंद्रा कहते हैं कि कई बार ऐसी आपात स्थितियां आ जाती हैं जो वश में नहीं होतीं जिन पर पहले नहीं सोचा गया होता वो परिस्थितियां बाद में आती हैं। एडवाइजरी टाइम लाइन हो जाए वो तो ठीक है लेकिन अगर उसमें कोई बाध्यता की शर्त होगी तो वो विधायिका का काम है। कानून बनाना संसद का अधिकार क्षेत्र है। वह कहते हैं कि न्यायिक नियुक्ति में एक कंसल्टेशन की प्रक्रिया होती है। उसे हर जगह से रिपोर्ट लेनी होती है इन पहलुओं को ध्यान में रखे बगैर जो टाइम लाइन तय हो वो अनिवार्य नहीं होनी चाहिए।
‘निष्पक्ष होकर सारे तंत्र करें तय’
दूसरी बार भेजी गई कॉलेजियम की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी है क्या और सरकार उसे मानने को बाध्य है इस पर सुरेश चंद्रा का कहना है कि ऐसा कहीं नहीं लिखा है। ये तो राष्ट्रपति के लिए है कि प्रधानमंत्री अगर कोई प्रस्ताव देते हैं तो वहां पर ऐसा है लेकिन यहां पर ऐसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत न्यायाधीश ज्ञान सुधा मिश्रा सरकार के लिए समय सीमा तय करने पर कहती हैं कि अभी कोई समय सीमा नहीं है फिर भी सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह असीमित समय तक अनुशंसा को लंबित न रखे। तीस दिन का समय शायद व्यवहारिक नहीं है होगा। इस पर सरकार से विचार विमर्श करके कोई निर्णय होना चाहिए। जस्टिस मिश्रा कहती हैं कि सारे तंत्र को निष्पक्ष होकर तय करना होगा कि वह नियुक्ति प्रक्रिया को सुधारना चाहते हैं या नियुक्ति के अधिकार को लेना चाहते हैं। यह यक्ष प्रश्न है।