छत्तीसगढ़

बेटा चलाएगा वंश, बनेगा बुढ़ापे का सहारा, अदालतें ऐसी पुरुषवादी सोच को न दें बढ़ावा: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक समानता की तरफदारी करते हुए अदालतों को पुरुषवादी सोच को बढ़ावा न देने की नसीहत दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ लड़का ही वंश आगे बढ़ाता है या बुढ़ापे में माता पिता की मदद करने में सक्षम है, इस तरह की टिप्पणियां न चाहते हुए भी पुरुषवादी धारणा को आगे बढ़ाती हैं, अदालतों को संदर्भ की परवाह किये बगैर इनसे बचना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ बच्चे के लिंग (लड़का या लड़की होने) के आधार पर संवैधानिक अदालतें हालात को ज्यादा गंभीर और खराब नहीं मान सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणियां गत 21 मार्च को सात साल के बच्चे का अपहरण और हत्या के मामले में दोषी की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करते हुए कहीं।

कोर्ट ने फैसले में साफ किया कि दोषी को कम से कम 20 साल की सजा काटनी होगी। यह फैसला प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा की पीठ ने पुनर्विचार याचिका पर सुनाया था, लेकिन यह पहला मौका नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को पुरुषवादी सोच से बचने की नसीहत दी है।मार्च 2021 में भी सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को घिसी पिटी पुरुषवादी सोच से बचने की नसीहत दी थी। वह मामला मध्यप्रदेश का ही था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न की पीड़िता से राखी बंधवाने की शर्त पर अभियुक्त को जमानत देने के हाई कोर्ट के फैसले को रद्द किया था।

मौजूदा मामला तमिलनाडु का है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अदालतों को पुरुषवादी सोच को बढ़ावा देने से बचने की नसीहत दी है। मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि कोर्ट ने चार बच्चों (तीन बेटियों और एक बेटा) में से इकलौते बेटे का अपहरण कर हत्या किये जाने को ज्यादा गंभीर अपराध मानते हुए दोषी को मौत की सजा सुनाई थी।

उसमें कोर्ट ने माना था कि चुनकर इकलौते लड़के का अपहरण करने के पीछे माता-पिता के मन में अधिकतम भय और पीड़ा पैदा करना था। मकसद के साथ इकलौते लड़के की हत्या के माता-पिता के लिए गंभीर परिणाम हैं। इकलौते लड़के को खोना माता-पिता के लिए अत्यधिक पीड़ादायक है, वह उनके परिवार के वंश को आगे बढ़ाता और उम्मीद की जाती है कि वह बुढ़ापे में उनकी देखभाल करता। ये चीजें पीड़ित पक्ष के लिए अथाह पीड़ादायक हैं, और निश्चित रूप से ये ज्यादा गंभीर और खराब हालात (एग्रीवेटिंग सरकमटेंसेस) हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा देने के फैसले में कोर्ट द्वारा ज्यादा गंभीर अपराध और खराब हालात का आधार बताई गई उपरोक्त पंक्तियों को अपने फैसले में उद्धत करते हुए कहा कि संवैधानिक अदालतें सिर्फ बच्चे के लिंग (लड़का या लड़की होने) के आधार पर हालात को ज्यादा गंभीर और खराब नहीं मान सकतीं।सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बच्चे की हत्या निसंदेह गंभीर अपराध है और उसकी कम उम्र और पूरे परिवार को पहुंचा आघात निसंदेह एक विकट परिस्थिति है। इन परिस्थितियों में एक संवैधानिक अदालत के लिए यह मायने नहीं रखता और न ही होना चाहिए कि वह बच्चा लड़का था या लड़की। हत्या समान रूप से दुखद है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को इस धारणा को बढ़ावा देने में नहीं शामिल होना चाहिए कि सिर्फ लड़का ही परिवार का वंश बढ़ाता है या बुढ़ापे में माता पिता को मदद देने में समर्थ है ऐसी टिप्पणियां न चाहते हुए भी पुरुषवादी सोच को बढ़ावा देती हैं, अदालतों को संदर्भ की परवाह किये बगैर इनसे बचना चाहिए।